तन और मन

बड़े भाग्य से बना मनुज तू,
सब पशुओं में अनुपम जंतु ।
इस जीवन में पा ले सब तू,
वरना यह बेकार बंधू करले बेडा पार ।।

प्रभु तुझको वरदान दिया है,
सुन्दर तन मन प्राण दिया है ।
जग में ऊँचा स्थान दिया है,
इसपर कर अभिमान बंधू कर इसका सम्मान ।।

तन मन का है ऐसा नाता,
जैसे राम जानकी माता ।
तन कटता तो मन भी रोता,
तन थकता तो मन भी सोता ।।
इसी प्यार ने दिया है तन को,
बहुत बड़ा अधिकार तन पर बहुत बड़ा अधिकार ।।

शीत लहर से जोर हवा से,
तन यूँ कापे सिकुड़े सीना ।
मन में यदि तब डर आ जावे,
उसी दशा में छूटे पसीना ।।

बहुत कष्ट से तन थक जावे,
हाथ पाँव भारी हो जावे ।
मन यदि तब खुश खबरी पावे,
उसी दशा में नाच नचावे ।।

मन चाहे तो तन हिलता है,
मन चाहे तो तन डुलता है ।
मन हो यदि खुशहाल तुम्हारा,
हसी ख़ुशी में तन खिलता है ।।

रखना हो यदि तन को चंगा,
मन निर्मल हो जैसे गंगा ।
गन्दा मन कर देता तन को,
दीन दुखी बीमार बंधू,
क्यों होता बीमार ।।

सुन्दर तन से बना है मानव,
तन की चाबी मन के अन्दर ।
खूब नशे में मन खो जावे,
बन जाता तब मानव बन्दर ।।

जीवन है यह एक तुम्हारा,
चला गया तो फिर ना आवे ।
जी इसको इज्जत से प्यारे,
सब जग तेरे ही गुण गावे ।।

क्या कम है तुझको क्यों रोता,
दीन दरिद्री तू क्यों होता ।
बुद्धी बल से मार्ग निकले,
उसका जीवन मंगल होता ।।

- अशोक श्रीधर वर्णेकर

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